— शकील अख्तर
राहुल आज वैसे ही काम कर रहे हैं। वे हर उस जगह मौजूद होते हैं जहां पीड़ित की आवाज सुनने कोई नहीं जा रहा होता। अपनी यात्रा लेकर कश्मीर गए। पैदल। वहां के लोगों की बात सुनी। मणिपुर गए वहां के लोगों की पीड़ा को पूरे देश तक पहुंचाया। छुपाया जा रहा था कि वहां कैसे हिंसा हो रही है। एक जातीय समुदाय दूसरे के इलाके में नहीं जा सकता। गृह युद्ध करवा दिया गया है।
यह कमजोरी नहीं भरोसा है। अपने देश पर, यहां के नागरिकों पर, देश की मिली-जुली सभ्यता, संस्कृति, गलत को गलत कहने का साहस और भारत के बहुसंख्यक लोगों पर।
राहुल ने पहले दिन ही दिखा दिया। भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी का लोकसभा में दानिश अली को गालियां देते हुए, धमकी देते हुए वीडियो सामने आते ही राहुल दानिश अली से मिलने उनके घर पहुंच गए। दानिश को इससे कितनी ताकत मिली यह उनके शब्दों से मालूम पड़ती है जो उन्होंने कहा कि मुझमें वापस हिम्मत और ताकत आई है। मैं रात भर सो नहीं पाया था। लगता था दिमाग की नस फट जाएगी। मगर अब राहुल जी से मिलने के बाद मेरा भरोसा वापस आया है कि सब मेरे साथ हैं।
यही भरोसा सबसे बड़ी बात है। भाजपा और संघ यह सब आज से नहीं कर रहे हैं। गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी और संघ प्रमुख गोलवलकर को लिखा था कि यह सांप्रदायिक विष हिन्दू महासभा और आरएसएस ने फैलाया है। मुखर्जी और गोलवलकर इन संगठनों के लिए रियायत मांगते हुए नेहरू और पटेल को पत्र लिख रहे थे। पटेल ने 19 सितम्बर 1948 को गोलवलकर को लिखे पत्र में कहा कि संघ के सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे होते हैं। कांग्रेस का विरोध करने में भी सभ्यता और शिष्टता का ध्यान नहीं रखा जाता। याद रहे यह आज भी हो रहा है। घमंडिया कहने से लेकर सुर्पणखा, कांग्रेस की विधवा, महात्मा गांधी, नेहरू, इन्दिरा, राहुल सब के खिलाफ चरित्र हनन अभियान आज भी चल रहा है।
खैर तो उस पत्र में सरदार पटेल साफ शब्दों में कहते हैं कि इसी जहर का फल यह हुआ कि गांधीजी की अमूल्य जान चली गई। साथ ही सरदार पटेल ने यह भी लिखा कि उनकी मृत्यु पर आरएसएस वालों ने हर्ष प्रकट किया मिठाई बांटी। सरदार पटेल आगे लिखते हैं कि हम लोगों को आशा थी कि छह महीने हो गए हैं आप लोग सीधे रास्ते पर आ जाएंगे मगर मेरे पास जो रिपोर्ट्स आती हैं उनसे मालूम होता है कि संघ पुरानी कार्रवाइयों को नई जान देने का प्रयत्न कर रहा है।
वह नई जान देने की कोशिश का ही परिणाम है कि आज भी भाजपा की भोपाल से सासंद प्रज्ञा ठाकुर गोडसे को महान देशभक्त बताती हैं। नफरत की खेती जैसा सरदार पटेल ने लिखा था लगातार जारी है। लेकिन उसके बरअक्स मोहब्बत की दुकान भी लगातार चल रही है। भाजपा बहुत पूछती है कि सत्तर साल में क्या हुआ। सत्तर साल में देश में प्रेम और सद्भाव का माहौल बनाए रखा गया। वह भाषा कभी संसद में नहीं बोली गई जो अभी भाजपा सांसद बिधूड़ी ने लोकसभा में बोली।
भाजपा और संघ इसके बचाव में सामने आ गया है। ठीक वैसे ही जैसे ऊपर बताया कि गोलवलकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी उस समय संघ और हिन्दू महासभा का बचाव कर रहे थे। इसमें कोई नई बात नहीं है। सिवाय इसके कि उस समय नेहरू और पटेल जैसे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे जो इन नफरती ताकतों को मजबूत जवाब दे रहे थे और आज के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री खामोश हैं।
मगर राहुल नहीं। राहुल ने दानिश अली के घर जाकर केवल दानिश अली को हिम्मत और ताकत नहीं दी है। देश के हर सताए जा रहे व्यक्ति को भरोसा दिया है कि मैं आपके साथ हूं। दानिश अली बसपा के सांसद हैं। मगर ये उम्मीद करना बेकार है कि मायावती उनसे मिलने आतीं। मायावती तो हाथरस की उस दलित लड़की के बलात्कार और रातों-रात उसका शव जला दिए जाने के बाद भी उसके परिवार के पास नहीं पहुंची थीं। राहुल और प्रियंका ही पहुंचे थे। और दूसरी कोशिश में। पहली बार तो सरकार ने जाने ही नहीं दिया था। उसी समय राहुल को धक्का मारकर नीचे गिराया गया। लाठी चार्ज हुआ जिसे प्रियंका ने अपने कार्यकर्ताओं को बचाने के लिए अपने हाथों पर रोका।
राहुल और प्रियंका लखीमपुर खीरी भी गए। जहां केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा टेनी के बेटे आशीष मिश्रा ने 8 किसानों को अपनी जीप से रौंदकर मारा डाला था। राहुल मणिपुर भी गए। हर उस जगह गए जहां अन्याय अत्याचार हुआ।
देश को इसी की जरूरत है। यहां कोई तुलना नहीं की जा रही। न ही वह हो सकती है। मगर सिर्फ इतिहास के तौर पर वह दौर याद आता है जब गांधी ऐसे ही किसानों का साथ देने के लिए 1917 चंपारण पहुंच गए थे। जिसे नील आंदोलन या चंपारण सत्याग्रह कहा जाता है। इसी तरह दलित आंदोलन 1933 में। छुआछूत के विरोध में। और 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो गांधी उस आजादी के जश्न में शामिल नहीं थे वे कोलकाता में शांति स्थापना के काम में जुटे हुए थे। लोगों को सांप्रदायिकता की आग से बचाने के लिए।
राहुल आज वैसे ही काम कर रहे हैं। वे हर उस जगह मौजूद होते हैं जहां पीड़ित की आवाज सुनने कोई नहीं जा रहा होता। अपनी यात्रा लेकर कश्मीर गए। पैदल। वहां के लोगों की बात सुनी। मणिपुर गए वहां के लोगों की पीड़ा को पूरे देश तक पहुंचाया। छुपाया जा रहा था कि वहां कैसे हिंसा हो रही है। एक जातीय समुदाय दूसरे के इलाके में नहीं जा सकता। गृह युद्ध करवा दिया गया है। उसके बाद ही महिला अत्याचार पर वह वीडियो आया था जिसने हर इंसान की रुह को कंपा दिया था। मगर प्रधानमंत्री फिर भी वहां नहीं गए। राहुल कोरोना में पैदल अपने गांव जाते मजदूरों से मिलने गए। किसान आंदोलन में गए। हर जगह गए।
तो इसके क्या संदेश हैं? दो- एक यह कि अन्याय अत्याचार किसी एक समुदाय पर नहीं हो रहा। साढ़े नौ साल में किसी को नहीं छोड़ा गया। दलित सबसे बड़ा शिकार है। गुजरात में नंगा करके बांध कर मारे जाने के दृश्य सबने देखे होंगे। छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या करनी पड़ी। उल्टे इल्जाम उसी पर लगाए गए। उसी के जवाब में वेमुला की मां राहुल की यात्रा में शामिल हुई थी। अभी ऊपर बताया कि गांधी ने 90 साल पहले दलितों के सम्मान के लिए आंदोलन किया था। और उसी के अनुरूप संविधान में समानता सम्मान का दिया भी गया। मगर पिछले साढ़े 9 साल में घड़ी की सुई उलटी घुमा दी गई। फिर से उन पर अत्याचार बढ़ गए। और उनकी नेता बनने का दावा करने वाली मायावती एक जगह भी उनका दर्द बांटने नहीं पहुंची। जबकि राहुल हर जगह पहुंचे। ओबीसी पर तो अभी सबसे बड़ा प्रहार महिला बिल में कर ही दिया गया। सोनिया गांधी और राहुल ने उनके लिए आवाज उठाई। मगर प्रधानमंत्री ने कोई आश्वासन नहीं दिया कि महिला आरक्षण में ओबीसी महिलाओं को कोटा दिया जाएगा। आदिवासी के तो सिर पर मध्य प्रदेश की सीधी में भाजपा नेता प्रवेश शुक्ला ने पेशाब किया। सिर्फ मुसलमान ही नहीं समाज के हर वर्ग पर इन नफरती ताकतों ने प्रहार किया।
तो पहला संदेश यह है कि जो राजनीति नकारात्मक होती है। प्रतिक्रियावादी होती है नफरत उसका अनिवार्य अंग होती है। पूरे समाज को जलाकर खाक कर देती है। यही बात राहुल ने कही थी कि इन्होंने पूरे देश में केरोसिन छिड़क दिया है।
और दूसरा संदेश यहीं इसी राहुल से शुरू होता है कि चाहे जितना निराशा का माहौल हो उसमें एक किरण उम्मीद की राहुल ने जलाए रखी है। राहुल पूरी ताकत और हिम्मत से अन्याय और अत्याचार के खिलाफ हर जगह जाकर खड़े हो रहे हैं।
और जैसा कि मणिपुर की महिलाओं ने कहा दनिश अली ने कहा कि उनके आने से ही हिम्मत आ गई। और यह सबसे बड़ी बात है। सबसे बड़ा संदेश कि कोई है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)